लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
सोनार बांगला की सोना औरतों के दुर्दिन
बांग्लादेश में दो राजनैतिक नेत्रियाँ बहुत सालों से देश पर शासन कर रही हैं-हसीना और खालिदा! खालिदा निश्चित रूप से धार्मिक कट्टरवादियों की मित्र हैं। हसीना को सेक्युलर, असाम्प्रदायिक कट्टरवाद की विरोधी शक्ति माना जाता था। हसीना की पार्टी अवामी लीग इस बार जीत जायेगी। बहुत से लोगों की यही धारणा थी, क्योंकि धार्मिक कट्टरवाद के रोब-दाब और उग्रवाद से जन-जीवन जर्जरित है। उम्मीद तो यह की गयी थी कि देश में दबारा धर्मनिरपेक्षता लाने. मदरसा शिक्षा-प्रसार बन्द करने, फ़तवाबाज़ों के फतवे बन्द करने, कट्टरवादियों का रोब-दाब मिटाने में हसीना ही एकमात्र नेत्री हैं, जो डटकर मुकाबला कर सकती हैं। प्रतिक्रियाशील कट्टरवादी शक्ति ने जब देश को ध्वंस कर डाला है, तब देश के शुभाकांक्षी लोग बेहद स्वाभाविक तरीके से हसीना की तरफ़ ही देख रहे थे। उन दिनों सभी लोगों को स्तम्भित करते हुए और जड़ बनाते हुए, हसीना ने जता दिया कि वे फ़तवाबाज़ों को फ़तवा जारी करने का अधिकार देंगी। उन्होंने ऐलान किया कि वे मदरसों को कॉलेज और विश्वविद्यालय का दर्जा देंगी, ब्लासफेमी क़ानून लायेंगी और गणप्रजातान्त्रिक बांग्लादेश को एक विशुद्ध इस्लामी राज्य बनाकर छोड़ेंगी। सन् 1993 में हबीबुर रहमान नामक जिस सिलहटी कट्टरवादी शख्स ने मेरे विरुद्ध फ़तवा जारी किया था, मेरे सिर की कीमत घोषित की थी, वह आगामी चुनाव में अवामी लीग की तरफ़ से प्रत्याशी है। हसीना ने बेहिचक इस्लामी मुल्लावादी दल के नेता, शयखुल हदीस से हाथ मिलाया है, समूचे देश भर में धार्मिक आतंक फैलाने में जिसका कोई जोड़ नहीं है। इस बात पर क्या किसी को विश्वास होता है। खैर, विश्वास भले ही न हो, लेकिन यह सच है। हाँ, विश्वास न होने के बावजूद, यह सच है कि अब इस बात की कोई सम्भावना नहीं है कि बांग्लादेश नामक देश, गणतन्त्र, समाजतन्त्र, धर्मनिरपेक्षता और बंगाली जातीयतावाद के आदर्शों की तरफ़ लौट सके।
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- इतनी-सी बात मेरी !
- पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
- बंगाली पुरुष
- नारी शरीर
- सुन्दरी
- मैं कान लगाये रहती हूँ
- मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
- बंगाली नारी : कल और आज
- मेरे प्रेमी
- अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
- असभ्यता
- मंगल कामना
- लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
- महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
- असम्भव तेज और दृढ़ता
- औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
- एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
- दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
- आख़िरकार हार जाना पड़ा
- औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
- सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
- लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
- तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
- औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
- औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
- पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
- समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
- मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
- सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
- ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
- रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
- औरत = शरीर
- भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
- कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
- जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
- औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
- औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
- दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
- वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
- काश, इसके पीछे राजनीति न होती
- आत्मघाती नारी
- पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
- इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
- नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
- लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
- शांखा-सिन्दूर कथा
- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं